संविधान दिवस पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
सामाजिक आर्थिक न्याय की गति बढ़ना चाहिए - कुलाधिपति एमपी सिंह
हिंदी भाषा में न्याय का अधिकार सुनिश्चित होना चाहिए- अरुण भारद्वाज
अ भारतीय संविधान मानव मूल्यों का दस्तावेज - प्रोफेसर जीएस बाजपेई
महू। भारतीय संविधान दिवस के अवसर पर आयोजित राष्ट्रीय वेबीनार में हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एवं संविधान विशेषज्ञ प्रोफेसर एमपी सिंह ने कहा कि सामाजिक और राजनीतिक न्याय की गति को बढ़ाना चाहिए और प्रोफेशनल पॉलिटिक्स को अपनाना चाहिए। सामाजिक जीवन में समानता ही संविधान का केंद्रीय पक्ष है। उन्होंने कहा कि संविधान सभा में 2 वर्ष 11 माह 17 दिन तक विमर्श हुआ यह मुद्दा भी चर्चा में रहा की स्वतंत्रता के बाद क्या होगा। स्वतंत्रता के बाद जो लोग पावर में रहे और उनके पुत्र-पुत्रीयों ने जिस प्रकार का राजनीतिक व्यवहार किया जिसके पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि उन्होंने प्रजातांत्रिक संविधान की रक्षा के लिए प्रयास किया जबकि संविधान के उद्देश्यों को प्राप्त करने की ओर गति नहीं रही। डॉ. अंबेडकर वैचारिक स्मरण पखवाड़े के अंतर्गत आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का अयोजन डॉ. बी आर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय महू ने किया था। इसी अवसर पर राजीव गांधी नेशनल यूनिवर्सिटी आफ लॉ के कुलपति प्रोफेसर गिरजा शंकर बाजपेई ने संविधान के केंद्रीय मूल्यों संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, प्रजातंत्र और गणराज्य की व्याख्या करते हुए कहा कि भारतीय संविधान मूल्यों से भरपूर है। इस की उद्देशिका में न्याय, स्वतंत्रता, समता, एकता, बंधुता और गरिमा जैसे मानवीय मूल्य हैं। उन्होंने कहा कि यह सभी मूल्य सार्वभौमिक, मानवीय और सामाजिक न्याय पर आधारित हैं । यही संविधान का मानवीय पक्ष है। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान अंतरराष्ट्रीय शांति, सद्भाव और मैत्री का भी पक्षधर है। इस दृष्टि से संविधान में मानवीय पक्ष को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। राज्यसभा के संयुक्त सचिव रहे एसएन साहू ने कहा कि संविधान का केंद्रीय भाव जीवन ही है उन्होंने राइट टू लाइव, राइट टू प्राइवेसी, फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन के संतुलन को स्पष्ट करते हुए कहा कि देश के समक्ष गंभीर चुनौतियां हैं। गांधी और अंबेडकर के विभिन्न सामाजिक समरसता के विचारों को उल्लेखित करते हुए उन्होंने कहा कि संविधान के मूल में 'कॉमन मैन' ही है। अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि संविधान में नॉन वायलेंस (अहिंसा), सस्टेनेबिलिटी, रिस्पेक्ट और जस्टिस को संविधान के उद्देश्यों के साथ जोड़ा जाना चाहिए । उन्होंने संविधान की उद्देशिका में नॉन वायलेंस को जोड़ने की मांग की। सर्वोच्च न्यायालय के सीनियर एडवोकेट अरुण भारद्वाज ने कहा कि संविधान की मूल भाषा के संबंध में अनुच्छेद 345 से 48 में स्पष्ट किया गया था कि संसद की भाषा 15 वर्षों तक के लिए ही अंग्रेजी हो सकती हैं, इस तरह संविधान का अनुच्छेद 210 में विधानसभाओं की भाषा के संदर्भ में भी इसका उल्लेख है हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में संसद और विधानसभा की कार्यवाहियों को सुनिश्चित करने का आग्रह किया और उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा कि आज भी सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी रखी गई है ऐसा लगता है कि भारत का न्याय तंत्र विदेशी भाषा पर आश्रित है न्याय पाने वाला फैसले की भाषा को समझ नहीं पाता है और अपनी पीड़ा को भी अपनी भाषा में व्यक्त नहीं कर पाता है। उन्होंने न्यायालयों में अनुवाद की समस्या का भी उल्लेख करते हुए मातृभाषा में न्याय करना करने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए। साथ ही उन्होंने कहा कि दुनिया में आज भी 57 देश अपनी-अपनी भाषाओं में फैसले देते हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए ब्राउस महू की कुलपति प्रोफेसर आशा शुक्ला ने संविधान में निहित सामाजिक समरसता और समानता के सिद्धांतों को स्पष्ट करते हुए जेंडर समानता के मुद्दे की ओर ध्यानाकर्षण कराया। उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। प्रस्तावना वक्तव्य में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट और अ लाइन जस्टिस चेयर के मानद आचार्य बलराज मलिक ने संविधान की प् उद्देशिका में अंतर्निहित मानवीय पक्ष को स्पष्ट करते हुए सार्वभौमिक मानवी आचार संहिता को पहचान कर माननीय संविधान की आवश्यकता प्रस्तावित किया। कार्यक्रम का संचालन और आभार प्रदर्शन डॉ सुरेंद्र पाठक ने किया। वेबीनार में बड़ी संख्या में ला के प्रोफेसर और एडवोकेट के अतिरिक्त ब्राउस महू के अधिष्ठाता गण और शिक्षक उपस्थित थे।
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